राजनीति में अपराधीकरण की कुप्रथा
राजनीति में अपराधीकरण की कुप्रथा
प्रमोद भार्गव
जब कोई गलत चलन लंबे समय तक चलता रहता है तो वह कुप्रथा का रूप ले लेती है। भारतीय राजनीति में अपराधीकरण इसी कुप्रथा के शिकंजे में है। लिहाजा इसे अमरबेल की उपमा दी जाने लगी है। वैसे तो सर्वोच्च न्यायालय दागी माननीयों से मुक्ति के लिए अनेक बार दिशा-निर्देश दे चुकी है, लेकिन ताजा फैसले में कुछ ज्यादा ही कठोर दिखाई दी है। न्यायमूर्ति फली नरीमन और बीआर गवई की पीठ ने कहा कि अब सांसदों और विधायकों पर जिन राज्यों में भी आपराधिक मामले न्यायालयों में विचाराधीन हैं, वे संबंधित उच्च न्यायालय की अनुमति के बिना वापस नहीं लिए जा सकते हैं। इसी के साथ न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल को भी निर्देशित किया कि वे अपने क्षेत्र के सांसदों व विधायकों पर लंबित निपटारे के मामलों की जानकारी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को दें। इस फैसले को व्यापक रूप देने की दृष्टि से अदालत ने सभी दलों को निर्देशित किया है कि दागी नेताओं के इतिहास की जानकारी अपनी-अपनी वेबसाइट के होमपेज पर डालें और उनके अपराधों का पूरा ब्यौरा पेश करें। चुनाव आयोग भी ऐसे नेताओं का मोबाइल एप तैयार कर चुनाव के समय उम्मीदवारों द्वारा दिए शपथ-पत्र में दर्ज अपराधों की सूची से जोड़ें।
अदालत ने पिछले वर्ष हुए बिहार विधानसभा चुनाव में उम्मीदवारों के दागी इतिहास को सार्वजनिक करने के आदेश का पालन नहीं करने के मामले की सुनवाई करते हुए यह निर्णय दिया है। दरअसल अदालत में पेश की गई एक रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान और पूर्व सांसद एवं विधायकों के विरुद्ध लंबित मामले दो साल में ही 17 फीसदी बढ़ गए हैं। रिपोर्ट में बताया है कि दिसंबर 2018 में वर्तमान माननीयों के खिलाफ दर्ज मामलों की संख्या 4,122 थी, जो सितंबर 2020 में बढ़कर 4,859 हो गई। फैसले के अंत में अदालत ने विधि-निर्माताओं से अपील की है कि दल जीतने की लालच में गहरी नींद से जागने को तैयार नहीं हैं। बावजूद हमें उम्मीद है कि अब वे जल्दी जागेंगे और राजनीति में अपराधीकरण की कुप्रथा को खत्म करने के लिए एक बड़ी सर्जरी करेंगे।
दरअसल, राजनीतिक सुधार की दिशा में न्यायालय हस्तक्षेप करके विधायिका को कानून बनाने के लिए उत्प्रेरित तो कर सकती है, लेकिन वह इस दिशा में कोई नया कानून अस्तित्व में नहीं ला सकती ? क्योंकि कानून बनाने का दायित्व संविधान ने विधायिका के पास ही सुरक्षित रखा हुआ है। इसीलिए अदालत ने अपने आदेश में माननीयों को जाग जाने का संदेश दिया है।
अदालत ने इसके पहले दागी सांसद व विधायकों के खिलाफ लंबित अपराधिक मामलों को सालभर में निपटाने के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने के मामले में भी सख्त रुख अपनाया था। अदालत की इस सख्ती पर केंद्र सरकार ने 12 विशेष अदालतों का गठन कर भी दिया था। लेकिन ये अदालतें अबतक सार्थक परिणाम देने में खरी नहीं उतर पाईं।
बीते तीन-चार दशकों के भीतर राजनीतिक अपराधियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। महिलाओं से बलात्कार, हत्या और उनसे छेड़छाड़ करने वाले अपराधी भी निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं। लूट,डकैती और भ्रष्ट कदाचार से जुड़े नेता भी विधानमंडलों की शोभा बढ़ा रहे हैं। सरकारी जमीनों को हड़पने में भी नेताओं की भागीदारी रही है। यही नहीं जो राजनेता सामंती परिवारों से जनप्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित हुए हैं, उन्होंने भी रियासतों के राज्य सरकारों में विलय होने के दस्तावेजों में हेराफेरी कर संपत्तियों को अपने प्रभाव से हड़पने का काम किया है। साफ है, राजनीति से जुड़े समुदाय की छवि और साख संदिग्ध है। इन्हें देश के भविष्य के लिए हर हाल में उज्ज्वल होना ही चाहिए।
जाहिर है, लोक पर राजनेता की मंशा असर डालती है। दरअसल, हमारे राजनेता और तथाकथित बुद्धिजीवी बड़ी सहजता से कह देते हैं कि दागी, धनी और बाहुबलियों को यदि दल उम्मीदवार बनाते हैं तो किसे जिताना है, यह तय स्थानीय मतदाता करे। बदलाव उसी के हाथ में है। वह योग्य प्रत्याशी का साथ दे और शिक्षित व स्वच्छ छवि के प्रतिनिधि का चयन करे। लेकिन ऐसी स्थिति में अक्सर मजबूत विकल्प का अभाव होता है। मतदाता के समक्ष, दो प्रमुख दलों के बीच से ही उम्मीदवार चयन की मजबूरी पेश आती है। जनता अथवा मतदाता से राजनीतिक सुधार की उम्मीद करना इसलिए भी बेमानी है, क्योंकि राजनीति और और उसके पूर्वग्रह पहले से ही मतदाताओं को धर्म और जाति के आधार पर बांट चुके हैं। वैसे भी देश में इतनी अज्ञानता, अशिक्षा, असमानता और गरीबी है कि लोगों को दो जून की रोटी के भी लाले पड़े हैं। कोरोना और बाढ़ ने इस संकट को और बढ़ाया है। इसीलिए देश की 67 फीसदी आबादी की खाद्य सुरक्षा की जा रही है। साफ है, जब बड़ी आबादी भूख व आजीविका के संकट से जूझ रही हो, तो वह उम्मीदवार के दागी अथवा भ्रष्टाचारी होने का मूल्यांकन कर पाएगी?
हमारी कानूनी व्यवस्था में विरोधाभासी कानूनी प्रावधानों के चलते सजायाफ्ता मुजरिमों को आजीवन चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध की मांग उठती रही है। लेकिन सार्थक परिणाम अबतक नहीं निकल पाए हैं। यही वजह है कि हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था पर अपराधी प्रवृत्ति के राजनीतिक प्रभावी होते चले जा रहे हैं। इसका एक प्रमुख कारण न्यायायिक प्रकिया में सुस्ती और टालने की प्रवृत्ति भी है। नतीजतन मामले लंबे समय तक लटके रहते हैं और नेताओं को पूरी राजनीतिक पारी खेलने का अवसर मिल जाता है। इसलिए त्वरित न्यायालय कारगर नतीजे नहीं दे पाई। त्वरित न्यायलयों की तरह ही उपभोक्ता, किशोर और परिवार न्यायालयों का गठन इसी उद्देश्य से किया गया था कि इन प्रकृतियों के मामले, इन विशेष अदालतों में तेज गति से निपटेंगे, लेकिन इनकी सार्थकता पूर्ण रूप में सिद्ध नहीं हो पाई है। वकीलों द्वारा तारीख दर तारीख मांगकर सुनवाई टालने की मंशा ने इन अदालतों के गठन का मकसद लगभग खत्म कर दिया है।
हमारे यहां पुलिस हो या सीबीआई जैसी शीर्ष जांच ऐजेंसी, इनकी भूमिकाएं निर्लिप्त नहीं होती हैं। अकसर इनका झुकाव सत्ता के पक्ष में देखा जाता है। इनके दुरुपयोग का आरोप परस्पर विरोधी राजनीतिक दल लगाते रहते हैं। इसीलिए देश में यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति बनी हुई है कि अपराध भी अपराध की प्रकृति के अनुसार दर्ज न किए जाकर व्यक्ति की हैसियत के मुताबिक पंजीबद्ध किए जाते हैं और उसी अंदाज में जांच प्रकिया आगे बढ़ती है व मामला न्यायिक प्रकिया से गुजरता है। इस दौरान कभी-कभी तो यह लगता है कि पूरी कानूनी प्रक्रिया ताकतवर दोषी को निर्दोष सिद्ध करने की मानसिकता से आगे बढ़ाई जा रही है। इसी लचर मानसिकता का परिणाम है कि राजनीति में अपराधियों की संख्या में निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है। इस दुरभिसंधि में यह मुगालता हमेशा बना रहता है कि राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है या अपराध का राजनीतिकरण हो रहा है। हम सब जानते हैं कि सीबीआई इसी पर्याय का अचूक औजार बनी हुई है। इसी कारण राजनीति में अपराधीकरण को बल मिला हुआ है।
विडंबना यह भी है कि जनप्रतिनिधियों को तो सब सुधारना चाहते हैं, लेकिन उन अधिकारियों को सुधारने से बचते हैं, जो राजनीति में अपराधीकरण को प्रोत्साहित करते हुए भ्रष्ट आचरण से जुड़े हैं और उन पर भी रिश्वतखोरी से लेकर जघन्य अपराध दर्ज हैं। लोकायुक्त पुलिस द्वारा रंगे हाथों पकड़े जाने के बावजूद राज्य सरकारें इन पर मामला चलाने की मंजूरी देने की बजाय, बचाने का काम करती हैं। लिहाजा उन भ्रष्ट और स्त्रीजन्य अपराधों से जुड़े लोक सेवकों (उच्च अधिकारी) को भी दागी नेताओं की श्रेणी में लाने की जरूरत है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)