नई शिक्षा नीति मैकाले की सोच पर सटीक वार
नई शिक्षा नीति मैकाले की सोच पर सटीक वार
सियाराम पांडेय ‘शांत’
शिक्षा राष्ट्र निर्माण का महायज्ञ है। यह राष्ट्र का भविष्य तय करती है। उसकी दशा और दिशा तय करती है। किसी भी राष्ट्र का विकास या पराभव उसकी शिक्षा नीति पर निर्भर करता है। गुलामी की भाषा चिंतक पैदा करेगी, यह तो संभव ही नहीं है। ऐसे में भारतेंदु हरिश्चंद याद आते हैं, यह कहते हुए कि ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब धर्मन को मूल।’ यह कहने में शायद ही किसी को कोई गुरेज हो कि भारत शिक्षा नीति के मामले में आज भी लॉर्ड थामस बैबिंग्टन मैकाले के भूत से अपना पिंड नहीं छुड़ा पाया है। भारत को अगर वाकई विकास पथ पर आगे बढ़ना है तो उसे अपनी प्राचीन संस्कृति और सभ्यता को अपनाना होगा। पुरानी शिक्षा पद्धति को ओर लौटना होगा। यही देश के समग्र हित में भी है। तभी हमारे परिवार, समाज, प्रदेश और देश का भला होगा। तभी हमारी प्रकृति खुशहाल होगी। वातावरण परिशुद्ध होगा और तभी हम तमाम मानसिक, शारीरिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दुश्चिंताओं से निजात पा सकेंगे।
मौजूदा केंद्र सरकार द्वारा स्वीकृत नवीन शिक्षा नीति के एक साल पूरे होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेहद पते की बात कही है कि भारत कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति राष्ट्र निर्माण का ‘महायज्ञ’ है। यह युवाओं को विश्वास दिलाती है कि देश अब पूरी तरह से उनके हौसलों के साथ है। दरअसल जो बात आज सोची और कही जा रही है, इस पर चिंतन तो आजादी के तुरंत बाद होना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हो सका। यह इस देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है?
लॉर्ड थॉमस बैबिंग्टन मैकाले ने 1835 में जब भारतीय चिकित्सा नीति का प्रस्ताव ब्रिटिश सरकार को दिया था तो उस दौरान उसने अपने पिता को एक पत्र भी लिखा था और उसका मजमून यह था कि हमें भारत में एक ऐसे वर्ग की जरूरत है जो रक्त और रंग में भारतीय हो परंतु विचार, आदर्श और बुद्धि में अंग्रेज हो। यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि हमारी शिक्षा योजना लागू होती है तो 30 साल बाद बंगाल के उच्च वर्ग में एक भी व्यक्ति मूर्ति उपासक नहीं बचेगा। भारत के लोग अपनी संस्कृति, सभ्यता और धार्मिक प्राच्य ग्रंथों को भूल जाएंगे। इससे पता चलता है कि भारत को लेकर लॉर्ड मैकाले के विचार कितने खतरनाक थे लेकिन इसके बाद भी आजादी के एक लंबे अरसे तक इस देश के हुक्मरानों ने इस बाबत सोचना मुनासिब नहीं समझा।
यह सच है कि गुलामों की कोई भाषा नहीं होती। हम सैकड़ों वर्षों तक गुलाम रहे। अंग्रेजों के अधीन रहते हम स्वतंत्र रूप से सोच नहीं सकते थे लेकिन आजादी के बाद तो हम अपना भला-बुरा सोच सकते हैं। गुलाम तो मालिक की भाषा को ही सर्वोपरि मानता है। भारत को आजाद हुए 74 साल हो गए हैं लेकिन आज भी देश में जो महत्व अंग्रेजी का है, वह हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं को प्राप्त नहीं हो सका है। व्यक्ति जैसा सोचता है, वैसा ही बन जाता है। जब देश का छात्र नौकरी की भावना से अध्ययन करता है तो वह किसी संस्थान का मालिक कैसे बन सकता है?
भारत की नई शिक्षा नीति का निर्धारण वर्ष 1947 में ही किया जाना चाहिए था लेकिन भारतीय हुक्मरानों ने जान-बूझकर भारतीय संस्कृति और सभ्यता को मजबूती देने का काम नहीं किया। उन्हें लगता रहा कि अंग्रेजी का महत्व कम होते ही उनकी पूछ कम हो जाएगी। धन्यवाद देना चाहिए इंदिरा गांधी को कि उन्होंने सन 1968 में देश में सबसे पहली शिक्षा नीति आरंभ की। इसके बाद 1986 में दूसरी शिक्षा नीति राजीव गांधी लेकर आए जिसमें पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने 1992 में कुछ तब्दीली की। 1992 के बाद भारतीय शिक्षा नीति में संशोधन-परिमार्जन की किसी भी प्रधानमंत्री ने जरूरत ही महसूस नहीं की।
शिक्षा निरंतर बदलाव चाहती है। वह देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप हो तभी प्रभावी हो पाती है। इस बात पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गौर किया और यह जानते हुए भी ऐसा करना बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा है, उन्होंने नई शिक्षा नीति लाने का साहस किया। जिस तरह उन्होंने ‘एकेडमिक बैंक ऑफ क्रेडिट’, क्षेत्रीय भाषाओं में प्रथम वर्ष के इंजीनियरिंग कार्यक्रम और उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं, उसकी जितनी भी सराहना की जाए, कम है। इसे अतिरिक्त उन्होंने शिक्षा क्षेत्र से जुड़े कई कार्यक्रमों की शुरुआत भी की है। उनकी इस बात में दम है कि भविष्य में हम कितना आगे जाएंगे, कितनी ऊंचाई प्राप्त करेंगे, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि हम अपने युवाओं को वर्तमान में कैसी शिक्षा दे रहे हैं। उन्हें कैसी दिशा दे रहे हैं। उनका मानना है कि आज का युवा अपनी दुनिया खुद अपने हिसाब से बनाना चाहता है, वह मौका चाहता है और पुराने बंधनों व पिंजरों से मुक्ति चाहता है। पहले अच्छी शिक्षा के लिए विदेश जाने की बाध्यता हुआ करती थी लेकिन अब देश में ही उच्च शिक्षा मिल रही है। विदेशी शिक्षण संस्थान यहां खुल रहे हैं। यह अच्छी बात है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि शिक्षा क्षेत्र में जो पहल अब हो रही है, उसके दूरगामी परिणाम हाल के दिनों में देखने को मिलेंगे। यह पहल नए भारत के निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका निभाएगी। नई शिक्षा नीति के माध्यम से उनका जोर स्कूल और कॉलेज की शिक्षा को अधिक समग्र और लचीला बनाने पर तो है ही, भारत को ज्ञान आधारित जीवंत समाज और ज्ञान की वैश्विक महाशक्ति में बदलना भी उनकी सोच में शामिल है। उन्होंने एकबार फिर सलाह दी है कि नई शिक्षा नीति ही भविष्य के भारत का आधार तैयार करेगी। हमारे युवाओं को देश को समर्थ बनाने के लिए पूरी दुनिया के मुकाबले एक कदम आगे बढ़कर सोचना होगा। एक साल में देश के 1200 से ज्यादा उच्च शिक्षण संस्थानों ने स्किल इंडिया से जुड़े कोर्सों की शुरुआत की है। स्थानीय भाषाओं को भी प्रमुखता देने का फैसला लिया है। इंजीनियरिंग की पढ़ाई अब तमिल, मराठा, बांग्ला समेत 5 भाषाओं में शुरू हो रही है और उसपर केंद्र सरकार की मुहर लग चुकी है तो इसका मतलब साफ है कि लॉर्ड मैकाले की शिक्षा के दिन भारत में अब लदने शुरू हो गए हैं।
इसके अलावा कुल 11 भाषाओं में इंजीनियरिंग के कोर्स का अनुवाद शुरू हो चुका है। इसका सबसे ज्यादा लाभ देश के गरीब और मिडिल क्लास के छात्रों को होगा। दलितों और आदिवासियों को होगा। वैसे भी शिक्षा नीति तो अपनी ही होनी चाहिए। दुनिया के 204 देशों में सिर्फ 11 देशों में ही अंग्रेजी बोली और समझी जाती है। इसके बाद भी अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा बनी हुई है और जिस भारत के एक -एक प्रदेश कई देशों की आबादी और क्षेत्रफल से कहीं अधिक हैं, उस देश की भाषा हिंदी जो अंग्रेजी से ज्यादा बोली और समझी जाती है, वह अंतर्राष्ट्रीय भाषा का दर्जा क्यों नहीं हासिल कर सकती। वैसे भी किसी भी देश की शिक्षा नीति तो अपनी ही होनी चाहिए। हम क्या पढ़ेंगे,यह अगर हम नहीं तय करेंगे तो कौन करेगा? लेकिन दुर्भाग्य इस बात का है कि भारत को कमजोर करने के लिहाज से सन 1835 में लॉर्ड मैकाले ने जो शिक्षा का मसौदा तैयार किया, आजादी के बाद भी एक लंबे समय तक हम उसी नीति पर चलते रहे। इस देश के हुक्मरानों ने यहां तक नहीं सोचा कि तरक्की तो उसी भाषा में हो सकती है जिसे हम बेहतर तरीके से जानते-समझते हैं। जिसे हम सहजता से पढ़ सकते हैं। आसानी से जिसमें बोल-बतिया सकते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी सरकार ने नई शिक्षा नीति-2020 में शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत खर्च करने का प्रस्ताव पास किया था जो इससे पहले 4.43 प्रतिशत हुआ करता था। नई शिक्षा नीति में पांचवी कक्षा तक की शिक्षा मातृभाषा में देने को हरी झंडी मिली थी। मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदल कर शिक्षा मंत्रालय कर दिया गया था। विधि और चिकित्सा शिक्षा को छोड़कर समस्त उच्च शिक्षा के लिए एक एकल निकाय के रूप में भारत उच्च शिक्षा आयोग गठित करने पर सहमति बनी थी। उच्च शिक्षा में 3.5 करोड़ नई सीटें जोड़ने का निर्णय हुआ था। छठवीं कक्षा से वोकेशनल कोर्स शुरू करने और इसके लिए इच्छुक छात्रों को 6वीं कक्षा के बाद से ही इंटर्नशिप कराने, म्यूजिक और आर्ट्स को पाठयक्रम में शामिल करने और ई-पाठ्यक्रम को बढ़ावा देने के लिए एक राष्ट्रीय शैक्षिक टेक्नोलॉजी फोरम बनाने और वर्चुअल लैब करने पर सहमति बनी थी और कहना न होगा कि सरकार इस दिशा में जोर-शोर से काम भी कर रही है। किन्हीं परिस्थिति में अगर छात्रों को ब्रेक भी लेना पड़े तो उनका साल खराब नहीं होता। उन्होंने जहां से अध्ययन छोड़ा था, उसी के आगे से वे अपनी पढ़ाई जारी रख सकते हैं।
कुल मिलाकर यह नीति युवाओं के लिए बेहद लाभकारी है। इस रीति-नीति पर अमल हो, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए। देश की सभी अदालतों में भी हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में वाद, कार्यवाही और निर्णय होने लगें। सरकारी स्कूलों में अध्ययन-अध्यापन का स्तर सुधारने की दिशा में काम हो तो इस राष्ट्र को नवजागरण की ओर बढ़ते देर नहीं लगेगी।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)