चिकित्सा शिक्षा में आरक्षण के मायने
चिकित्सा शिक्षा में आरक्षण के मायने
प्रमोद भार्गव
पिछड़े वर्ग की लंबे समय से चल रही मांग पर केंद्र सरकार ने विराम लगा दिया। अब राज्य सरकारों के चिकित्सा महाविद्यालयों में भी केंद्रीय कोटे के अतंर्गत आरक्षित 15 प्रतिशत सीटों पर पिछड़ा वर्ग के छात्रों को 27 और आर्थिक रूप से कमजोर (ईडब्ल्यूएस) के छात्रों को 10 फीसदी आरक्षण का अतिरिक्त लाभ मिलेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्देश पर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने यह फैसला लिया है। हालांकि केंद्र सरकार के मेडिकल कॉलेजों में यह व्यवस्था पहले से ही लागू है। अबतक राज्य सरकार के कॉलेजों में केंद्रीय कोटा के तहत सिर्फ अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के छात्रों को ही आरक्षण का लाभ मिलता था। इस निर्णय के बाद नीट सभी 15 प्रतिशत अखिल भारतीय सीटों पर यह आरक्षण लागू हो जाएगा। आरक्षण का यह लाभ क्रीमी-लेयर के दायरे में आने वाले छात्रों को नहीं मिलेगा। साफ है, पिछड़े वर्ग की जातियों को यह लाभ केंद्रीय सूची के हिसाब से मिलेगा।
इस लाभ को उत्तर-प्रदेश व गुजरात में अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा रहा है। क्योंकि कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल भाजपा की केंद्र में सरकार बनने के बाद से आरोप लगाते रहे हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जातीय आरक्षण के पक्ष में नहीं है। दरअसल, आरक्षण की पुनर्समीक्षा और आर्थिक आधार पर आरक्षण के मुद्दे पर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि ‘समूचे राष्ट्र का वास्तविक हित का ख्याल रखने वाले और सामाजिक समता के लिए प्रतिबद्ध लोगों की एक समिति बने, जो विचार करे कि किन वर्गों को और कबतक आरक्षण की जरूरत है।’ इस सुझाव के साथ जो बहस छिड़ी थी, उस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कहना पड़ा था कि ‘आरक्षण किसी भी सूरत में समाप्त नहीं किया जाएगा।’ आरक्षण का यह प्रावधान इसी सिलसिले में किया गया लगता है।
वर्तमान में एमबीबीएस की कुल 84,649 सीटें हैं। इनमें करीब 50 फीसदी सरकारी मेडिकल कॉलेजों की हैं। अर्थात इस निर्णय के बाद ओबीसी के लिए करीब 1713 सीटें बढ़ जाएंगी। आरक्षण का यह लाभ पीजी, बीडीएस, एमडीएस, एमडी और डिप्लोमा के छात्रों को भी मिलेगा। सर्वोच्च न्यायालय के 2007 में आए फैसले के अनुसार एसी को 15 और एसटी को 7.5 प्रतिशत आरक्षण मिल रहा था। ओबीसी इस लाभ वंचित थे। इसलिए सरकार पर लगातार अतिरिक्त आरक्षण देने का दबाव बढ़ रहा था। भाजपा के पिछड़े वर्ग से आने वाले सांसदों ने भी सरकार से हाल ही में यह मांग की थी। साफ है, भाजपा का एक वर्ग इस आरक्षण के समर्थन में था। गोया, योग्यता पर जात-पात को महत्व दे दिया गया। इससे तय है कि आरक्षण का अंत निकट भविष्य में मुश्किल है।
हालांकि संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की पैरवी करते हुए आरक्षण के जो आधार बनाए गए हैं, उन आधारों की प्रासंगिकता की तार्किक पड़ताल करने में कोई बुराई नहीं थी। दरअसल समाज में असमानता की खाई पाटने की दृष्टि से सामाजिक आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े लोगों को समान और सशक्त बनाने के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण के संवैधानिक उपाय किए गए थे। इसी नजरिए से मंडल आयोग की सिफारिशें प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 1990 में लागू की थीं। हालांकि इस पहल में उनकी सरकार बचाने की मानसिकता अंतर्निहित थी। उस समय अयोध्या में मंदिर मुद्दा चरम पर था। देवीलाल के समर्थन वापसी से विश्वनाथ सरकार लड़खड़ा रही थी। इसे साधने के लिए आनन-फानन में धूल खा रही मंडल सिफारिशें लागू कर दी गईं। इनके लागू होने से कालांतर में एक नए तरह की जातिगत विषमता की खाई उत्तरोतर चौड़ी होती चली गई। इसकी जड़ से एक ऐसे अभिजात्य वर्ग का अभ्युदय हुआ, जिसने लाभ के महत्व को एकपक्षीय स्वरूप दे दिया। नतीजतन एक ऐसी ‘क्रीमी-लेयर’ तैयार हो गई, जो अपनी ही जाति के वंचितों को आरक्षण के दायरे से बाहर रखने का काम कर रही है।
दरअसल संविधान में आरक्षण का प्रबंध इसलिए किया गया था, क्योंकि देश में हरिजन, आदिवासी और दलित ऐसे बड़े जाति समूह थे, जिनके साथ शोषण और अन्याय का सिलसिला शताब्दियों तक जारी रहा। लिहाजा उन्हें सामाजिक स्तर बढ़ाने की छूट देते हुए आरक्षण के उपायों को किसी समय-सीमा में नहीं बांधा गया। किंतु विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़ों को आरक्षण देने के उपाय राजनीतिक स्वार्थ-सिद्धि के चलते इसलिए किए, जिससे उनका कार्यकाल कुछ लंबा खिंच जाए। जबकि ये जातियां शासक जातियां रही हैं। अनुसूचित जातियों और जनजातियों का टकराव भी इन्हीं जातियों से ज्यादा रहा है।
पिछड़ी और जाट जातियों के निर्विवाद नेता रहे चौधरी चरण सिंह न केवल आरक्षण के विरुद्ध थे, बल्कि मंडल आयोग के भी खिलाफ थे। पूरे देश में जाति, बिरादरी और संप्रदाय निरपेक्ष ग्रामीण मतदाताओं को जगरूक व सशक्त बनाते हुए एकजुट करने का काम चरण सिंह ने ही किया था। वे अनुसूचित जातियों और जनजातियों के अलावा अन्य जाति को आरक्षण देने के विरोध थे। उनका मानना था कि ‘पिछड़ों को आरक्षण न केवल समाज में परस्पर ईर्ष्या और विद्वेष को जन्म देगा, बल्कि जातीय भावना का भी पोषण करेगा।’ समाजवाद के प्रखर चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया भी केवल दलितों को आरक्षण देने के पक्ष में थे। लोहिया का कहना था, ‘यदि जातीय आधार पर देश को बांटते चले जाएंगे तो हम भीतर से दुर्बल होते चले जाएंगे। विकास को जाति पर केंद्रित करने के दीर्घकालिक अर्थ कबिलाई समाज में परिवर्तित होने लग जाएंगे।’
कांग्रेस भी आर्थिक आधार पर आरक्षण की पैरवी करती है। मायावती ने तो आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को आरक्षण देने का प्रस्ताव विधानसभा से भी पारित करा दिया था। दरअसल संघ के सिद्धांत के विचारक एवं प्रचारक रहे दीनदयाल उपाध्याय ने जब ‘एकात्म मानवतावाद’ का सिद्धांत प्रतिपादित किया तो उसके मूल में ग्राम और ग्रामीण विकास ही सर्वोपरि था। जबकि ‘अंत्योदय’ की अवधारणा के सूत्र विकास से वंचित अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति तक पहुंचने की कोशिशों से जुड़े थे। मसलन आर्थिक आधार पर समाज के प्रत्येक गरीब व्यक्ति का उत्थान हो, फिर उसकी जाति या धर्म कोई भी हो। यह आवधारणा ग्राम और व्यक्ति के सर्वांगीण विकास से जुड़ी है। भागवत, दीनदयाल के इसी आदर्श को स्थापित करने की नीति के लिए आरक्षण पर पुनर्विचार की बात कर रहे थे। जब आरक्षण का वर्तमान प्रावधान अपने लक्ष्य में एकांगी व अप्रासंगिक होता चला जा रहा है तो आरक्षण संबंधी अनुच्छेदों की समीक्षा में दिक्कत क्यों होनी चाहिए ? दरअसल आर्थिक उदारवाद के बाद पिछले 25-30 सालों में आरक्षण और त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का सबसे ज्यादा किन्हीं जाति समूहों को लाभ मिला है, वे चंद पिछड़ी जातियां ही हैं। इनका नाटकीय ढंग से राजनीतिक, आर्थिक और शैक्षिक सशक्तीकरण हुआ है।
कमोबेश इसी परिप्रेक्ष्य में 18 मार्च 2015 को आए सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले में सवाल उठाया गया था कि ‘पिछड़े वर्ग की सूची में लाभार्थी समुदायों की संख्या जरूर बढ़ी, किंतु किसी जाति को उससे बाहर नहीं किया गया। क्या सूची में शामिल समुदायों में से कोई भी समुदाय पिछड़ेपन से इन 30 सालों में बाहर नहीं आ सका ? यदि ऐसा है तो पिछड़ा आरक्षण शुरू होने से अबतक देश में हुई प्रगति के बारे में हम क्या कहें ? दरअसल राजनीति का खेल ही ऐसा है कि आरक्षण का लाभ आर्थिक संपन्नता और सामाजिक वर्चस्व प्राप्त कर चुके लोग भी इसके लाभ से वंचित होना नहीं चाहते। सामाजिक न्याय की राजनीति के बहाने प्रभुत्व में आए मुलायम और लालू यादव जैसे प्रभावशाली नेता भी इन समुदाय या व्यक्तियों को आरक्षण के दायरे से बाहर करने का प्रश्न कभी नहीं उठाते। अलबत्ता उनसे भी बीस पड़ने वाले समुदायों को आरक्षण के दायरे में लाने की कवायद करते हैं। यह स्थिति आरक्षण से वंचित समुदायों के सशक्तीकरण का जरिया बनने की बजाय, आरक्षित सूची में दर्ज शक्तिशाली लोगों के लिए लाभ हड़पने का माध्यम बन गई है।
गोया, आरक्षण के आर्थिक परिप्रेक्ष्य में कुछ ऐसे नए मापदंड तलाशने की जरूरत है, जो आरक्षण को सिद्धांतनिष्ठ समरूप दिशा देने का काम करे। भारतीय समाज के हिंदुओं में पिछड़ेपन का एक कारक नि:संदेह जाति रही है। लेकिन आजादी के बाद देश का जो बहुआयामी विकास हुआ है, उसके चलते पिछड़ी जातियां मुख्यधारा में आकर सक्षम भी हुई हैं। इसलिए मौजूदा परिदृश्य में पिछड़ेपन का आधार एकमात्र जाति का निम्न या पिछड़ा होना नहीं रह गया है। लोक-कल्याण व बढ़ते अवसरों के चलते केवल अतीत में हुए अन्याय को पिछड़ने का आधार नहीं माना जा सकता। अतएव वक्त का तकाजा था कि आरक्षण को नई कसौटियों पर कसा जाता। वर्तमान समय में किस समुदाय विशेष की स्थिति कैसी है, इसकी सुनिश्चितता पुराने आंकड़ों के बजाय नए प्रमाणिक सर्वेक्षण कराकर किया जाता।
इस लिहाज से सर्वोच्च न्यायालय का किन्नरों को आरक्षण का लाभ देने का फैसला अहम है। इस निर्णय की मिसाल पेश करते हुए न्यायालय ने दलील दी थी कि ‘ऐसे वंचित समूहों की पहचान की जा सकती है, जो वास्तव में विशेष अवसर की सुविधा के हकदार हैं, परंतु उन्हें यह अधिकार नहीं मिल रहा है।’ ऐसे ही समावेशी उपाय खोजकर आरक्षण सुविधा को प्रासंगिक और वंचितों के सर्वांगीण विकास का आधार बनाया जाए तो इसे मोदी सरकार की मौलिक उपलब्धि माना जा सकता है, किंतु अब लगता है कि केंद्र सरकार ने आरक्षण में बदलाव की संभावनाओं पर विराम लगाकर विरोधियों के समक्ष हथियार डाल दिए हैं। सामाजिक बराबरी का लक्ष्य तो तब पूरा होगा, जब शिक्षा और नौकरी में समानता आए और एक ही लकीर पर खड़े होकर विद्यार्थी प्रतिस्पर्धा की दौड़ लगाएं ?
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)